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मैं ये बताना चाहता हूँ

मेरी काबिलियत को मेरे स्वभाव से मापने वाले उन सभी लोगों को मैं बस ये बतलाना चाहता हूं. तुम जो मेरे चुप चुप रहने पे, यूँ मुह बनाते हो, घुलता मिलता नहीं बिना बात मैं, इसे मेरी कमी बताते हो. क्यों मैं अखिर खुदको बदलूं तुम्हारे लिए छोड़ खुशियां अपनी, खुद से लड़लूं तुम्हारे लिए. तुम भी तो कभी मेरी जगह आके देखो ज़रा, चलो अदला बदली करें आज खुदको आज़मा के देखो ज़रा. मेरी काबिलियत को मेरे स्वभाव से मापने वाले उन सभी लोगों को मैं बस ये बतलाना चाहता हूं. आसान नहीं है यूं? सांझ मैं जीना दोस्तों अंधियारे मैं रात के, तन्हाई के आंसू पीना दोस्तों. ये मेरे अंदर के समन्दर की लहरें एक तूफान है खुद में, जिसे रोज समेट मैं घर से निकल पाता हूँ. जब मुझे टक टकी नज़रों से देखा करते हो तुम, कहीं मेरा सत्य आम न हो जाए ये सोच घबरा जाता हूँ. मैं लड़ूंगा फिर भी आदि से अंत तक , चलता चलूँगा मैं अब शून्य से लेकर अनंत तक. तुम जैसे आएँगे जाएंगे जीवन तो लोगों का ही मेला है, अब ये कभी कभी की बात नहीं ये मेरे लिए रोज़ का ही खेला है. मेरी काबिलियत को मेरे स्वभाव से मापने वा

सफरनामा

चलता चलता सफ़र ये मंज़िल तक आ पहुंचा जिसकी हमें तलाश थी उस दिल तक जा पहुंचा। खैर लालच मंज़िल का हमें भी कम न था, जुदा होने की कमी थी मगर गम न था। खून किया उसने हमारा बीच बाज़ार में, दर्द की दवा ढूंढने ये कातिल तक जा पहुंचा।। चलता चलता सफ़र ये मंज़िल तक आ पहुंचा जिसकी हमें तलाश थी उस दिल तक जा पहुंचा।

हौसला

रोज़ रोज़ गिरकर भी हम मुकम्मल खड़े हैं। ऐ - ज़िन्दगी देख मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं।। कभी अंधियारे सी काली तू , कभी बर्फ सी श्वेत है। कभी समंदर की वेला है , तो कभी रेगिस्तान की रेत है।। ले ले जो इम्तेहान लेने हैं तुझे , अब हम भी ज़िद पे अड़े हैं। ऐ - ज़िन्दगी देख मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं।।

तेरा साथ

त्याग कर मैं धाम मेरा , छोड़कर मैं नाम मेरा, कुछ ख्वाब दिखाने आया हूँ , मैं तेरा साथ निभाने आया हूँ।  परिभाषाओं के सागर में , स्वप्नगीत गाकर मैं, कुछ नए तराने लाया हूँ , मैं तेरा साथ निभाने आया हूँ।  फिर हाथ तेरा मैं थामकर , ये जीवन तेरे नाम कर, सब छोड़ ज़माने आया हूँ , मैं तेरा साथ निभाने आया हूँ।  पहले से आखरी अध्याय तक, शुन्य से लेके शिवाय तक , तुम्हे अपना बनाने आया हूँ, मैं तेरा साथ निभाने आया हूँ। 

परिंदा

पंखों को फैला मैं, जो उड़ जाऊँ एक दिन। एक परिंदा जैसे, गगन चूमने चल देता है। बिना कुछ सोचे-समझे, बस घूमने चल देता है।। कुछ वैसे ही, सभी बांधीशों से, मैं मुड़ जाऊँ एक दिन। पंखों को फैला मैं, जो उड़ जाऊँ एक दिन।। वो सुबह भी क्या खुब होगी, जब आसमां सिर्फ मेरा होगा। एक नई सुबह होगी, एक नया बसेरा होगा।। कुछ ऐसी ही नादानियों पे, बस अड़ जाऊँ एक दिन। पंखों को फैला मैं, जो उड़ जाऊँ एक दिन।। - प्रवीण

उड़ने की चाह

न जाने आज फिर क्यों, उड़ जाने को जी चाहता है। सवाल - ए -ज़िन्दगी तो बहुत थे मगर, बवाल भी ज़िन्दगी में बहुत थे मगर, जो छुट गई गालियाँ मेरी उन गलियों में मुड़ जाने को जी चाहता है। न जाने आज फिर क्यों, उड़ जाने को जी चाहता है।। कुछ लोग मिलते गए और कारवां बनता चला गया, कभी लड़खड़ाया मैं, तो फिर संभलता चला गया, जो इस सफर में दूर हो चले हैं, उन अपनो से जुड़ जाने को जी चाहता है। न जाने आज फिर क्यों, उड़ जाने को जी चाहता है।। 

तेरी गलियाँ

हर बार तेरी गलियों में चला आता हूँ, मैं एक मुसाफिर के जैसे! तेरा पता होकर भी मेरे पास नहीं, है, तो बस एक उम्मीद, की तू दिख जाए शायद । जब मैं गुज़रूँ तेरी गलियों से तो तू मुस्कुराए शायद। इस दिल में, मैं ये क्या लिए बैठा हूँ अखिर ये हो भी तो ज़ाहिर कैसे।  हर बार तेरी गलियों में चला आता हूँ, मैं एक मुसाफिर के जैसे।।